फोटो : आज से 29 वर्ष पूर्व इसी मार्केट में हुआ था हादसा, चारों ओर था तबाही का मंजर।
जालौन। ‘दीपावली’ हिंदू धर्म का सबसे बड़ा त्योहार, जिसे खुशियों का पर्व माना जाता है। लोग 'दीपावली' के त्योहार को मनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं। समाज के प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार इस पर्व अपने परिजनों के लिए कुछ न कुछ खरीददारी करते ही हैं। पटाखे और आतिशबाजी का जमकर प्रयोग किया जाता है।
लेकिन आज से 29 वर्ष पहले 'दीपावली' के से कुछ दिन पहले 11 अक्टूबर 1991 का दिन जालौन नगरवासियों के लिए एक दुःस्वप्न की तरह है। उस रोज ऐसा हादसा हुआ कि उस हादसे को लोग आज भी अपने मस्तिष्क से नहीं उतार पाए हैं। उस दिन आतिशबाजी की दुकानों से शुरू हुई आग ने कई घरों के दीपक छीन लिए। डेढ़ दर्जन दुकानों में लगी आग में लगभड़ 1 करोड़ का सामान जलकर राख हुआ। तबाही के बाद हर ओर बर्बादी का मंजर नजर आ रहा था। लोग बताते हैं कि हादसे के बाद तीन दिनों तक धुएं के गुबार उठते रहे थे।
90 के दशक में दीपावली पर्व के काफी पहले से ही नगर में आतिशबाजी की दुकानें नगर के मुख्य बाजार झंडा चैराहे के पास ही सजती थीं। उस समय योगश पाटकर, हामिद एलपी, मगन पाटकार, हाजी कलीमुल्ला, भूरे बिसाती आदि आतिशबाजी की दुकानों नगर में सजाते थे। 11 अक्टूबर 1991 को दोपहर लगभग 3 बजे तक सब कुछ ठीक ठाक था। तभी ऐसा कुछ हुआ जिसकी लोगों ने कल्पना भी न की थी।
एक ग्राहक ने किसी दुकानदार को अतिशबाजी चलाकर दिखाने की जिद कर दी। लाभ कमाने के चक्कर में दुकानदार आतिशबाजी चलाकर दिखाने लगा। अचानक आतिशबाजी से निकली चिंगारी दुकान में पहुंच गई। फिर क्या था, दुकानों पर रखे राॅकेट, क्रेकर, पटाखे आदि खुद की फूटने लगे। आमने सामने लगी दुकानों पर राॅकेट, सुतली बम आदि ने उड़ उड़ कर तबाही मचाई। आग लगने के बाद लोगों को संभलने का भी मौका नहीं मिला और देखते ही देखते झंडा चैराहे से पुरानी नझाई तक का बाजार आग का गोला बन गया। जो भाग गए उनकी तो जान बच गई। लेकिन दुर्भाग्य से 6 किशोरों समेत 9 लोग ऐसे रहे जो भाग न सके और उसी भउ़की आग ने उनकी जिंदगियां छीन लीं।
उस समय जालौन नगर में दमकल गाड़ी उपलब्ध नहीं थीं। उरई, कानुपर और झांसी से शाम तक 5 दमकिल गाड़ियां आईं, लेकिन तब तक जो तबाही होनी थी, वह हो चुकी थी। आतिशबाजी के दुकानों के अलावा उनके पीछे स्थित कपड़े, काॅपी, किताब, जनरल स्टोर आदि की लगभग डेढ़ दर्जन दुकानों में रखा लगभग 1 करोड़ का माल जलकर राख हो चुका था और आग ने 6 घरों के 9 दीपकों को बुझा दिया था। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि दमकल गाड़ियों द्वारा आग बुझाने के बाद भी तीन दिनों तक धुएं के गुबार उस बाजार से उठते रहे। इस घटना के बाद योगेश पाटकार, मगन पाटकार, हाजी कलीमुल्ला ने इस काम को ही छोड़ दिया और दूसरे काम अपना लिए। वहीं, प्रशासन ने घटना के बाद आतिशबाजी की दुकानों को नगर से दूर छत्रसाल इंटर काॅलेज के मैदान में लगवाना शुरू कर दिया। तब से आतिशबाजी की दुकानें वहीं सजाई जाती हैं।
उस समय आतिशबाजी का काम करने वाले योगेश पाटकर जो अब महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधनों की दुकान चलाते हैं, ने बताया कि किसी दुकानदार ने ग्राहक को आतिशबाजी चलाकर दिखाई थी। उसी से निकली चिंगारी ने इतनी बड़ी घटना को अंजाम दिया। उस घटना को वह आज तक नहीं भूले हैं। दुकानों में आग लगते ही वह दुकान को ऐसे ही छोड़कर भाग निकले थे। यदि जरा सी भी देर होती तो क्या होता, सोचकर ही सिहर जाता हूं। उस हादसे के बाद आतिशबाजी का काम करने की हिम्मत ही नहीं हुई। यही कारण है कि दूसरा काम अपना लिया है। कम से कम जान का तो कोई जोखिम नहीं है।
हादसे में 10 वर्षीय बेटे नीलू व भतीजे अंशुल को खाने वाले सतीश गुप्ता बताते हैं कि उनका बेटा और भतीजा दुकान पर खाना देने के लिए आए थे। काफी कोशिश के बाद भी वह दोनों को नहीं बचा सके। घटना के बारे में सोचकर जब रात में नींद खुल जाती है तो रात करवट बदलते ही बीतती है।
तब आतिशबाजी का काम करने वाले और अब जनरल स्टोर के विक्रेता हाजी कलीमुल्ला बताते हैं वह दुकानदारी में व्यस्त थे और 15 वर्षीय बेटा हिदायतउल्ला सहयोग कर रहा था। अचानक तेज आवाज व दुकानों में लगी आग को देखकर उन्होंने बेटे को दुकान से बाहर निकाला और उसका हाथ पकड़कर भागने का प्रयास करने लगे। लेकिन भगदड़ के बीच बेटे का हाथ छूट गया और वह आग की चपेट में आ गया...। इसके बाद वह आगे कुछ बोल न सके।
हादसे में 12 वर्षीय बहन शबनम को खोने वाले हसन अख्तर बताते हैं कि उनकी बहन कपड़े की सिलाई के लिए बाजार गई थी। तभी यह घटना हो गई। आग से बचने की हड़बड़ाहट में शबनम एक दुकान के अंदर चली गई। इसके बाद वह बाहर नहीं निकल सकी। इस बारे में सोचकर वह आज भी डर जाते हैं। काश परिजनों ने उस दिन शमबनम को बाजार न भेजा होता तो आज वह जिंदा होती।
हादसे की प्रत्यक्षदर्शी जमुना देवी बताती हैं कि वह सड़क पर डलिया व झाड़ू की दुकान लगाए थी। पास में रमेश वर्मा व उनके भाई कमलेश वर्मा की किताबों की दुकान थी। उनके तीन बच्चे दोपहर में किताबों की दुकान पर खाना देने के लिए आए थे। अचानक लगी आग में तीन बच्चों के साथ वह दोनों भाग नहीं सके। वह पांचों लोग आग से बचने के लिए शटर डालकर दुकान में बंद हो गए। सोचा होगा कि आग अंदर नहीं आ पाएगी। लेकिन जैसा कि कहा जाता है ‘हुई है वही, जो राम रचि राखा।’ उन्हें क्या पता था कि आगे उनके साथ क्या होने वाला है। भीषण आग से बढ़ती तपिश और तापमान, धुएं की घुटन और किसी तरह दुकान के अंदर पहुंची आग से कोई बचकर बाहर नहीं निकल सका। दूसरे दिन जब शटर खोली गई तो परिवार के पांचों सदस्यों के कंकाल एक दूसरे के गले से लिपटे हुए मिले। जिससे लगा कि अंतिम समय में उन्होंने एक दूसरे को गले लगाकर दुनियां को अलविदा कहा होगा। अपने अंतिम समय में उस परिवार के सदस्य क्या सोच रहे होंगे। जो तीन बच्चे साथ थे उन्हें आग में जलता देखकर उनके हृदय पर क्रूा गुजर रही होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। घटना से दुखी भाई भुवनेश यहां रह नहीं सके और वह अपना सबकुछ बेच बाचकर चले गए। जमुना देवी बताती हैं कि उस घटना के बाद से आज तक उन्होंने अपने घर पर बच्चों को आतिशबाजी नहीं चलाने दी।
कपड़ा विक्रेता प्रेमकुमार वर्मा कहते हैं कि हादसे में आतिशबाजी की दुकानों के अलावा डेढ़ दर्जन अन्य दुकानें भी जलकर राख हो गई थीं। जिसमें उनकी भी कपड़ा की दुकान थी। मुख्य बाजार में स्थित दुकानों में रखा तकरीबन 1 करोड़ का माल जलकर राख हो गया था। हादसे के बाद सभी दलों के राजनेता आए, मुआवजे का आश्वासन दिया, लेकिन दुकानदारों के हाथ आज तक फूटी कौड़ी नहीं लगी। हां, आतिशबाजी विक्रेताओं को 5 हजार व मृतक के परिजनों को 10-10 हजार की मदद तत्कालीन राजनेताओं ने की थी। साथ ही सरकार से मृतक के परिवार के 1 सदस्य को नौकरी व आर्थिक मदद एवं मुआवजा दिलाने आश्वासन दिया था। लेकिन समय के साथ उनके वादे भी हवा हो गए। हादसे के बाद से वह लोगों को आतिशबाजी का प्रयोग न करने की सलाह देते रहते हैं।
उक्त हादसे के बारे में सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि कैसे एक ही परिवार के 5 लोगों ने गले से लिपटकर आग में जान दे दी। उस समय क्या बीत रही होगी उन पर, सोचकर ही मन द्रवित हो उठता है। 'सुरभि संदेश' अपने सभी पाठकों से अपील करता है कि आप जमकर दीपावली की खुशियां मनाए लेकिन साथ ही अपनी सुरक्षा का भी पूरा ध्यान रखें। खासतौर पर आतिशबाजी छुड़ाते समय। बच्चों को अपनी देख रेख में आतिशबाजी चलाने दें। उन्हें आतिशबाजी चलाते समय कतई अकेला न छोड़ें। आतिशबाजी घर के अंदर नहीं बल्कि घर के बाहर चलाएं। सुरक्षा के उपायों को अपनाकर त्यौहार का आनंद लें। अंत में सभी पाठकों को दीपकोत्सव की हार्दिक बधाई।