04 Jan
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एक ओर जहां दिल्ली बाॅर्डर पर किसान गलन भरी सर्दी में आंदोलनरत हैं। ऐसे में नए वर्ष की पार्टी राहुल गांधी विदेश में मना रहे थे। आखिर क्या कारण है कि जब जब पार्टी को उनकी जरूरत होती है तभी वह सब कुछ छोड़ छाड़कर विदेश निकल जाते हैं। आज इसी विषय पर आप पाठकों से चर्चा करने का मन हो रहा है।
            यह पहला मौका नहीं है जब राहुल गाँधी ने अपने व्यक्तिगत जीवन को राजनीतिक जीवन से ज्यादा तवज्जो दी हो। इससे पहले कई मौकों पर राहुल गांधी अकेले अथवा सपरिवार जन्मदिन मनाने से लेकर नये साल का जश्न मनाने के लिए विदेश जा चुके हैं। 

         कई मौकों पर कांग्रेस पार्टी को राहुल गाँधी के विदेश दौरों की वजह से राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ा है। लेकिन इसके बावजूद राहुल गाँधी के विदेश दौरों में कमी नहीं आई है। बीती 28 दिसंबर को कांग्रेस के 136वें स्थापना दिवस के मौके पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और अंतरिम अध्यक्षा सोनिया गांधी अनुपस्थित रहीं। 

         राहुल इस कार्यक्रम से ठीक एक दिन पहले इटली के लिए रवाना हुए थे। और सोनिया गांधी की तबियत खराब होने की वजह से कार्यक्रम की जिम्मेदारी प्रियंका गाँधी को संभालनी पड़ी। इसी कार्यक्रम में जब पत्रकारों ने प्रियंका गाँधी से पूछा कि स्थापना दिवस जैसे अहम मौके पर आखिर राहुल गांधी क्यों नहीं आए। तो वह इसका जवाब दिए बिना ही कार्यक्रम से चली गईं। हालांकि कांग्रेस पार्टी की ओर से कहा गया कि राहुल गांधी अपनी बीमार नानी को देखने के लिए गए हैं। लेकिन पार्टी द्वारा यह जानकारी भी आधिकारिक तौर पर नहीं दी गई थी। इस खबर के सामने आने के बाद बीजेपी को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल गया। 

        हो भी क्यों न देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार जिसे जनता के सामने आना चाहिए वह मुंह छुपाकर क्यों भाग गया। ऐसे में सवाल उठता है कि राहुल गाँधी बार-बार ऐसा क्यों करते हैं?केंद्रीय गृह मंत्रालय के मुताबिक, राहुल साल 2015 से 2019 के बीच 247 बार विदेश यात्राओं पर गए हैं। यह उन यात्राओं की संख्या है जो कि एसपीजी को बिना सूचित किए की गई थीं। इसका मतलब ये है कि राहुल गांधी की कुल विदेश यात्राओं की संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है। 

          चार साल में 247 यात्राओं के लिहाज से ही राहुल गांधी ने हर साल 65 और हर महीने 5 से अधिक विदेश यात्राएं कीं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने साल 2019 में यह जानकारी लोकसभा में पेश की थी। यहां सवाल राहुल के विदेश यात्रा पर जाने का नहीं है। क्योंकि यह व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है। 

         लेकिन सवाल यहां यह है कि राहुल गांधी बार-बार ऐसे मौकों पर ही विदेश यात्राओं पर क्यों जाते हैं जब उनकी पार्टी को उनकी सख्त जरूरत होती है। कई बार कांग्रेस पार्टी को अपने कार्यक्रमों और राष्ट्रीय अभियानों को सिर्फ इसलिए स्थगित करना पड़ा क्योंकि तय तारीखों पर राहुल गांधी की मौजूदगी संभव नहीं थी।

महाराष्ट्र में गठबंधन बनने से लेकर कर्नाटक में गठबंधन सरकार के मौके पर भी कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के वापस लौटने का इंतजार करती रही।

साल 2019 में जब देश भर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। कांग्रेस पार्टी इस मसले पर बीजेपी का कड़ा विरोध कर रही थी लेकिन राहुल गांधी इस बीच दक्षिण कोरिया की यात्रा पर निकल गए। 

साल 2018 में कर्नाटक चुनाव के ठीक बाद राहुल गांधी पूर्व कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के साथ विदेश यात्रा पर गए। जिसकी वजह से कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन में बनी सरकार को पोर्टफोलियो बंटवारे में देरी का सामना करना पड़ा।

साल 2016 में नए साल के मौके पर भी वह पाँच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले विदेश यात्रा पर गए। इसकी वजह से हर बार उन्हें बीजेपी समेत अन्य विपक्षी दलों और यूपीए के घटक दलों की ओर से मुखर या पर्दे के पीछे आलोचना का सामना करना पड़ा। 

         ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उन पर इन आलोचनाओं का फर्क नहीं पड़ता और राहुल गांधी क्या इन आलोचनाओं से उबर चुके हैं? उनके रवैये को देखकर तो ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को लोगों की आलोचनाओं का फर्क नहीं पड़ता है, चाहें वो आलोचना पार्टी के अंदर हो या पार्टी के बाहर हो। पार्टी के अंदर 23 नेताओं की चिट्ठी लिखने के बाद भी जिस हिसाब से कांग्रेस, गांधी परिवार के पीछे पड़ी रही कि सत्ता संभाल लो, कांग्रेस को उबार लो...! इससे कहीं न कहीं राहुल गाँधी को ये लगने लगा है कि उनके बिना पार्टी की नैया पार नहीं होगी।

          जहाँ तक बीजेपी की आलोचना का सवाल है तो बीजेपी पिछले सात-आठ सालों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने में लगी हुई है। और काफी सफल भी है यह भी राहुल गांधी की अदूरदर्शिता और अपरिपक्वता का ही नतीजा है।

           जहां तक जिम्मेदारियों की बात करें तो राहुल गांधी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में हुई हार की जिम्मेदारी लेते हुए ही अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। उनकी माँ सोनिया गांधी पूरी तरह से इसके खिलाफ थीं। लेकिन राहुल गांधी ने इस्तीफा दिया। इसके बाद से लेकर अब तक पार्टी नेताओं और सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने के लिए काफी प्रयास किए हैं। लेकिन राहुल गांधी ने अपना रुख स्पष्ट किया हुआ है।

          राहुल को लेकर बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा दिया था कि पार्ट टाइम पॉलिटिक्स, फुल टाइम पर्यटन और पाखंड जो नेता करेगा, उसको नानी याद आएगी और जब नानी याद आती है तो वह कहां पहुंच जाते हैं इसका पता सिर्फ उनको ही होता है।

          यहां मुझे राहुल गांधी से सहानुभूति हो रही है। मेरा मनना है कि राहुल गाँधी एक भले व्यक्ति हैं। वह आम व्यक्ति की तरह ही जीवन यापन करने के शौकीन हैं। लेकिन उन्हें जो दायित्व सौंपा गया है, वह गलत है। वह पार्टी के नेताओं और मां की बदौलत ऐसे पेशे और दबाव में हैं जो उनरके व्यक्तित्व के लिए ही नहीं हैं। वह चाहे पार्टी के अध्यक्ष रहे हों या उपाध्यक्ष, उन्होंने कभी अपनी जिम्मेदारियों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जितनी जरूरत थी। क्योंकि उनका मूल स्वभाव इसके लिए बना ही नहीं है। जरूरी नहीं हर अच्छा खिलाड़ी कप्तान ही हो। सचिन तेंदुलकर जितने अच्छे खिलाड़ी थे उतने की विफल कप्तान रहे।

          अब इसे राहुल गांधी का स्वभाव कहें या उनकी अनिच्छा या आंतरिक कलह...। इसे कुछ भी कहें लेकिन इसका नुकसान भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को ही लगातार उठाना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के बीच किसकी चलेगी? क्या गांधी परिवार किसी अन्य शख्स को शीर्ष पद पर बिठाएगा या राहुल गांधी को मनाने का दौर चलता रहेगा?

        साल 2019 के चुनाव में हार के बाद से कांग्रेस जिस दौर से गुजर रही है, उससे कांग्रेस में एक अंतरकलह का दौर शुरू हुआ है। कांग्रेस का एक तबका मन ही मन चाहता है कि शीर्ष पद पर कोई ऐसा शख्स बैठे जिससे आम कार्यकर्ता जाकर आसानी से मिल सके। वहीं, गांधी परिवार के प्रति बफादार तबका राहुल गांधी को एक बार फिर शीर्ष पद पर लाने की कोशिशों में जुटा हुआ है। 

        आने वाले दिनों में कांग्रेस के अंदर चुनाव से जुड़ी प्रक्रियाएं शुरू होने वाली हैं। लेकिन राहुल गाँधी की ओर से अब तक सक्रिय राजनीति करने का रुझान नहीं दिखाया जा रहा है, यह पार्टी के लिए वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। पार्टी को उन्हें स्वतंत्र छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। कहा भी गया है कि बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेए।

          तुलनात्मक रूप से देखें तो आप अमित शाह या नरेंद्र मोदी की विचारधारा से सहमत हों या न हों। लेकिन उनकी मेहनत सामने दिख रही है। अमित शाह को कोरोना हुआ, इसके बाद भी वो कभी असम, कभी बंगाल तो कभी मणिपुर का लगातार दौरा किए जा रहे हैं। ऐसे ही नरेंद्र मोदी लगातार सक्रियता दिखाते हैं। यही कारण है कि जनता उन्हें पसंद कर रही है। 

         साल 2019 के चुनाव में 12 करोड़ लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था। ऐसे में कांग्रेस की कुछ तो जवाबदेही बनती ही है। लेकिन राहुल गांधी लगातार जबावदेही से मुंह मोड़कर विदेश यात्राओं में ही मगन हैं।

          मेरा मनाना है कि अब वह समय आ गया है जब गांधी परिवार को ये सोचना चाहिए कि फिलहाल उन्हें परिवार से बाहर किसी ऐसे स्वीकार्य नेता को पार्टी की बागडोर सौंपनी चाहिए जो हाशिए पर जा खड़ी हुई पार्टी को जमीनी स्तर से खड़ा कर सके। बूथ लेवल से पार्टी को हर राज्य में खड़ा करने की जरूरत है। नया नेतृत्व लाने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि पार्टी में अनुभवी और मंझे हुए लोग न हों। ऐसा भी नहीं हैं कि पार्टी में नई सोच वाले युवा न हों। इनके बीच तालमेल बैठाकर बजुर्गों के अनुभव और युवाओं की मेहनत के बल पर एक बार फिर पार्टी में जान फूंकना होगा। तभी आगे पार्टी का भविष्य बचेगा। अन्यथा जिम्मेदारी से बचते हुए अहम मौकों पर इस प्रकार की विदेश यात्राएं आगे भी जारी रहेंगी।

लेखक परिचय: अनिल शिवहरे सुरभि संदेश के प्रधान संपादक हैं

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