इन ‘अन्नदाताओं’ ने ‘तिरंगा’ की आड़ में जो खेल खेला है, उसे देशवासी कभी माफ नहीं कर पाएंगे। उन्होंने गणतंत्र दिवस पर केवल ‘गण’ को ही ध्वस्त नहीं किया बल्कि ‘तंत्र’ को भी तार-तार कर दिया। जय जवान, जय किसान और तिरंगा की शान की आड़ में उन्होंने भारत के सम्मान को रौंदने के साथ अपने स्वाभिमान को भी मिट्टी में मिला दिया।
पूरा पढ़ेंअब वह समय आ गया है जब गांधी परिवार को ये सोचना चाहिए कि फिलहाल उन्हें परिवार से बाहर किसी ऐसे स्वीकार्य नेता को पार्टी की बागडोर सौंपनी चाहिए जो हाशिए पर जा खड़ी हुई पार्टी को जमीनी स्तर से खड़ा कर सके। बूथ लेवल से पार्टी को हर राज्य में खड़ा करने की जरूरत है। नया नेतृत्व लाने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि पार्टी में अनुभवी और मंझे हुए लोग न हों। ऐसा भी नहीं हैं कि पार्टी में नई सोच वाले युवा न हों। इनके बीच तालमेल बैठाकर बजुर्गों के अनुभव और युवाओं की मेहनत के बल पर एक बार फिर पार्टी में जान फूंकना होगा। तभी आगे पार्टी का भविष्य बचेगा। अन्यथा जिम्मेदारी से बचते हुए अहम मौकों पर इस प्रकार की विदेश यात्राएं आगे भी जारी रहेंगी।
पूरा पढ़ेंफिर भी बेशर्म उद्धव सरकार अर्नब को जेल से रिहा करने में आना कानी करती नजर आ रही है। इस संपूर्ण प्रकरण में सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि देश में जो भी समाचार जगत के प्रमुख चैनल हैं, जा समाज व राष्ट्र के सजग प्रहरी होने का दंभ भरते हैं। जिन्हें सजगता, निडरता व निष्पक्षता के लिए समय समय पर बड़े बड़े एवार्ड मिले हैं। जो कल तक इस उद्धव सरकार को सुशांत केस, कंगना रणावत व ड्रग्स मामलों पर दिन दिन भर कोई दूसरी न्यूज मजबूरी में दिखाते थे।
पूरा पढ़ेंचीन के मामले को लेकर जवाहर लाल नेहरू और नरेंद्र मोदी पर विशेष
पूरा पढ़ें1913 से शुरू हुए फिल्मों के सफर ने 100 वर्षों से अधिक समय मंे कितना सफर तय कर लिया है। इस पर कितना भी समेटने और लिखने की कोशिश करे बहुत कुछ छुटने का एहसास होता है। दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाली भारतीय फिल्म उद्योग समय से साथ आगे बढ़ता गया। निर्माता, निर्देशक, कलाकार और तकनीकें बदलती रही और उसके साथ भारतीय सिनेमा भी बदलता गया। धर्मिक और पौराणिक कथाओं से शुरुआत करनेवाला भारतीय सिनेमा बाजारवादी सिनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले चुका है। यथार्थवादी समांतर सिनेमा के काल में भारतीय सिनेमा जगत वैचारिक चोटी पर पहुंचा था। इस युग की फिल्मों को स्वर्णकालीन सिनेमा कहा जा सकता है। लेकिन पश्चिमी बाजारवाद के प्रभाव में आए सिनेमा ने रुपये कमाने मंे झंडे गाड़ने शुरू कर दिए। कालाकार या निर्माता रुपये कमाए अच्छी बात है। लेकिन रुपये कमाने के चक्कर में सिनेमा को भी उन्होंने बाजारू बना दिया।
पूरा पढ़ेंसिनेमा, जो समाज का दर्पण कहलता है। सिनेमा, समाज को बदलने का दमखम रखता है। सिनेमा और उसमें काम करने वाले अभिनेता व अभिनेत्रियों से प्रभावित होकर युवा उन्हीं के जैसा बनने का प्रयास करते हैं। ऐसे में नए दौर के अभिनेता और अभिनेत्रियां इस समाज को क्या दे रहे हैं, इसी विषय पर चूंकि लेख थोड़ा बड़ा है इसलिए इसे दो भागों मंे प्रस्तुत किया जा रहा है। पहला भाग भारतीय फिल्मों का स्वर्णिम युग और दूसरा फिल्म जगत का स्याह पक्ष
पूरा पढ़ेंस्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सूझबूझ से चपातियों और रक्त कमल से अंग्रेजों को नाकों चने चबबा दिए। क्या है पूरा प्रकरण पढ़ें ..
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