सुरभि संदेश। एक नेता जिसे स्कूल के समय से ही जोखिम उठाना पसंद था। बाद में वह हवाई जहाज उड़ाने लगा। उसने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया, एक नहीं बल्कि दो देशों के स्वतंत्रता संग्राम में। आजाद भारत में राजनीति में सक्रिय होकर 2 बार मुख्यमंत्री और 1 बार केंद्र में मंत्री भी रहा। जब इस महान नेता का देहांत हुआ, तब उनके पार्थिव शरीर को एक नहीं बल्कि 3 देशों के राष्ट्रीय ध्वज में लपेट कर रखा गया। साथ ही तीन देशों में राष्ट्रीय शोक मनाया गया।
हम बात कर रहे हैं बिजयानंद पटनायक जिन्हें बीजू पटनायक के नाम से जाना जाता है। यहां उनकी बात इसलिए हो रही है, क्योंकि हाल ही में दिल्ली में स्थित इंडोनेशिया के दूतावास का एक कमरा उनके नाम पर किया गया है। लेकिन इंडोनेशियन दूतावास ने आखिर क्यों उन्हें इस सम्मान के लायक समझा? इसे जानने के पहले बीजू पटनायक, उनकी लड़ाकू छवि और खतरों से खेलने की उनकी क्षमता की चर्चा करना जरूरी हो जाता है।
पायलट की ड्रेस में बीजू पटनायक की पत्नी ज्ञान देवी जो देश की पहली महिला कामर्शियल पायलट भी थीं
5 मार्च 1916 को उड़ीसा (वर्तमान नाम ओडिशा) के गंजम जिले में जन्मे बीजू बाबू पढ़ाई छोड़कर 18 वर्ष की उम्र में दिल्ली के फ्लाइंग क्लब में प्लेन उड़ाने की ट्रेनिंग लेने लगे। इसी फ्लाइंग क्लब की ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने 2 चीजें हासिल की। एक तो अपना प्यार और दूसरा बतौर पायलट खतरनाक से खतरनाक मिशन को पूरा करने का जीवट।
फ्लाइंग क्लब की पायलट ट्रेनिंग के दौरान ही उनकी मुलाकात अपने साथ ट्रेनिंग कर रही ज्ञान देवी से हुई। ज्ञान देवी एक पंजाबी परिवार से थीं और रावलपिंडी की रहने वाली थीं। फ्लाइंग क्लब में पहले दोनों की दोस्ती हुई। तगड़ी वाली दोस्ती अंततः 1939 में शादी में बदल गई। ज्ञान देवी देश की पहली महिला कमर्शियल पायलट भी हुईं। इस शादी से दोनों के 3 बच्चे हुए। प्रेम पटनायक, नवीन पटनायक उर्फ पप्पू (ओडिशा के मुख्यमंत्री) और लेखिका गीता मेहता। पिता के निधन के बाद नवीन पटनायक ने राजनीति में कदम रखा और एक वर्ष बाद ही अपने पिता बीजू पटनायक के नाम पर बीजू जनता दल की स्थापना की।
आजादी के बाद 50 के दशक में बीजू पटनायक कांग्रेस की राजनीति करने लगे। 50 के दशक के आखिर में उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया और अंततः 1961 में वे मुख्यमंत्री बनाए गए। 1977 में वे मोरारजी देसाई की सरकार में इस्पात और खान मंत्री बनाए गए जबकि 1990 में जनता दल की ओर से एक बार फिर ओडिशा के मुख्यमंत्री बने और पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान बीजू बाबू ने कई पार्टियां बनाई और कई पार्टियां तोड़ी।
मिशन के दौरान बीजू पटनायक
बतौर पायलट बीजू बाबू को पहले विश्व युद्ध के दौरान भीषण लड़ाई के बीच रंगून में फंसे भारतीयों को सुरक्षित निकालने का जिम्मा दिया गया। एक तरफ ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों की सेना थी तो दूसरी तरफ जापान और उसके साथ आजाद हिंद फौज के लड़ाके। बीजू प्लेन उड़ाकर रंगून गए और वहां से हजारों भारतीयों को सुरक्षित निकालकर देश के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचाया। इस दौरान उनपर कई बार हमला भी हुआ लेकिन बीजू किस्मत के धनी निकले, इस मिशन में वह कई बार बाल-बाल बचे।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ संकट में घिर गया था तब उन्होंने लड़ाकू विमान डकोटा उड़ा कर हिटलर की सेनाओं पर काफी बमबारी की थी। जिससे हिटलर पीछे हटने को मजबूर हो गया था। उनकी इस बहादुरी पर उन्हें सोवियत संघ का सर्वोच्च पुरस्कार भी दिया गया था और उन्हें सोवियत संघ ने अपनी नागरिकता प्रदान की थी।
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया। लेकिन यह आजादी देश को 2 टुकड़े कर मिली थी। भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी बना था। लेकिन कश्मीर की रियासत ने भारत या पाकिस्तान, किसी में विलय नहीं किया था। 1947 में पाकिस्तान सैनिकों ने कबायलियों के वेश में कश्मीर पर हमला कर दिया। इस हमले से घबराए कश्मीर के राजा हरि सिंह ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मदद की गुहार लगाई और साथ ही भारत में विलय की इच्छा प्रकट की। तब भी बीजू पर ही भरोसा जताया गया।
डकोटा प्लेन से कश्मीर पहुंचने पर बीजू ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि कहीं हवाई पट्टी पर दुश्मन का कब्जा तो नहीं है, उन्होंने अपने विमान को हवाई पट्टी के बेहद नजदीक उड़ाया और जब देखा कि रास्ता एकदम साफ है तो उन्होंने अपने विमान को वहीं उतार दिया और वहां पहुंचे भारतीय सैनिकों ने घुसपैठियों को खदेड़ दिया था। यदि बीजू साहस न दिखाते तो कश्मीर आज पाकिस्तान के हिस्से में होता।
इंडोनेशिया नीदरलैंड लोगों का उपनिवेश था। इंडोनेशिया ने अधिकांश इलाकों को 1946 के आखिरी महीनों में डचों यानी नीदरलैंड के कब्जे से मुक्त करा लिया था। लेकिन 1948 आते-आते डचों ने एक बार फिर इंडोनेशिया पर धावा बोल दिया। तब इंडोनेशिया के सर्वोच्च नेता सुकर्णो ने भारत से मदद मांगी। तब बीजू को इस मिशन को पूरा करने के लिए एक पुराना डाकोटा प्लेन दिया गया और इस प्लेन में बीजू अपनी जान की परवाह किए बिना पत्नी ज्ञान देवी के साथ जकार्ता के लिए उड़ चले।
डच सैनिकों ने उनके प्लेन के इंडोनेशिया के हवाई क्षेत्र में प्रवेश करते ही उन्हें मार गिराने कोशिश की। इसके बावजूद बीजू ने अपने प्लेन को जर्काता के पास उतार दिया और वहां से बड़ी सावधानी से सिंगापुर होते हुए इंडोनेशिया के सुल्तान शहरयार और सुकर्णो को साथ लेकर दिल्ली आ गए। उनकी इस बहादुरी से इंडोनेशिया के लोगों में एक असीम ऊर्जा का संचार हुआ और उन्होंने डच सैनिकों पर धावा बोला। इसके बाद इंडोनेशिया एक पूर्ण आजाद देश बना।
इंडोनेशिया की पूर्व राष्ट्रपति मेघावती सुकर्णोपुत्री (आगे)
इसके बाद जब सुकर्णो आजाद इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति बने। तब उन्होंने इस बहादुरी के काम के लिए बीजू बाबू को मानद रूप से इंडोनेशिया की नागरिकता दी। साथ ही उन्हें इंडोनेशिया के ‘भूमि पुत्र’ सम्मान से नवाजा गया। इतना ही नहीं, 1996 में बीजू बाबू को इंडोनेशिया के सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार ‘बिंताग जसा उतान’ से भी सम्मानित किया गया।
इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो से बीजू बाबू की दोस्ती ऐसी थी कि जब सुकर्णो की बेटी मेघावती का जन्म हुआ तब उनका नामकरण भी बीजू बाबू ने ही किया था। कहा जाता है कि उस दिन मेघ बरस रहा था इसलिए बीजू बाबू ने उनका नाम मेघावती सुकर्णोपुत्री रख दिया। यही मेघावती सुकर्णोपुत्री 2001 में इंडोनेशिया की राष्ट्रपति बनीं थी।
बीजू बाबू के इसी योगदान को याद करते हुए अब इंडोनेशिया ने अपने दिल्ली स्थित दूतावास के एक कमरे का नामकरण उनके नाम पर किया है. इस कमरे को बीजू बाबू को समर्पित करते हुए, भारत में इंडोनेशिया के राजदूत, सिद्धार्थो रेजा सूर्योदिपुरो ने इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को याद किया और कहा कि यह कमरा उनकी स्मृतियों को संजोकर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा।
बीजू बाबू अपने पूरे राजनीतिक करियर के दौरान अक्सर नेताओं से भिड़ते रहे। मुंहफट स्वभाव के बीजू बाबू की बहुत कम राजनेताओं से ठीक-ठाक ढंग से निभ सकी। उनके आलोचक अक्सर उन्हें लोकतांत्रिक तानाशाह और उत्कल का सांड तक कहते थे।
यह 1967 का साल था और इंदिरा गांधी को अभी प्रधानमंत्री बने एक साल ही बीता था। इसी दरम्यान कटक में छात्रों के एक सम्मेलन में बीजू बाबू बोलते-बोलते बोल गए, “यदि मैं चाहूं तो इसी मंच पर आप लोगों के सामने इंदिरा गांधी को डांस करवा सकता हूं।” उनके इस बयान पर बवाल मच गया और अंततः उन इंदिरा गांधी से उनकी राजनीतिक राहें जुदा हो गई, जिन्हें वह अक्सर इंदू कहकर संबोधित किया करते थे।
यह 1989-90 का दौर था। केन्द्र और ओडिशा दोनों जगहों पर जनता दल की सरकार थी। वीपी सिंह प्रधानमंत्री और बीजू पटनायक ओडिशा के मुख्यमंत्री थे। अगस्त 1990 में जैसे ही वीपी सिंह ने मंडल कमीशन का राग छेड़ा, बीजू बाबू उनके विरोध में खड़े हो गए और उनकी तीखी आलोचना करने लगे। बीजू बाबू ने तब वीपी सिंह की आलोचना करते हुए कहा था, “समाज को बांटने की गंदी चालें चलने में वीपी सिंह राजीव गांधी से तनिक भी अलग नहीं हैं.”
ऐसे निडर स्वभाव के पटनायक का 17 अप्रैल 1997 को निधन हो गया था। हालांकि उन्हें वैसी मौत नहीं मिली जैसी वह चाहते थे। बीजू ने अपनी मौत को लेकर एक बार कहा था, ‘‘किसी लंबी बीमारी के बजाय मैं एयर क्रैश में मरना चाहूंगा। नहीं तो फिर ऐसा हो कि मैं तुरंत ही मर जाऊं...मैं गिरूं और मर जाऊं।’’
19 अप्रैल 1997 को जब उनकी अंतिम यात्रा निकल रही थी तब उनके पार्थिव शरीर को 3 देशों (भारत, इंडोनेशिया और रूस) के राष्ट्रीय ध्वज में लपेटा गया था। ऐसे बीजू पटनायक को भारत के साथ-साथ इंडोनेशिया में भी इतना सम्मान हासिल है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। बीजू पटनायक के निधन के बाद इंडोनेशिया में सात दिनों का राजकीय शोक मनाया गया था और रूस में एक दिन के लिए राजकीय शोक मनाया गया था एवं सारे झंडे झुका दिए गए थे।
बीजू पटनायक