हाल के वर्षों में देश-विदेश में इस मसले पर कई अध्ययन हुए हैं। जिनसे पता चलता है कि गाय की दो विदेशी नस्लें हैं, जर्सी और होल्स्टीन। ये मात्रा में दूध भले ही ज्यादा देती हैं, पर वास्तव में इनके उत्पाद फायदे की बजाय नुकसानदेह ज्यादा हैं। कई अध्ययन तो इन्हें गाय मानने तक को तैयार नहीं हैं। यह अपने मूल रूप में यूरोप का उरूस नामक जंगली जानवर था, जिसका कि यूरोपीय लोग शिकार किया करते थे। चूंकि जंगली जानवर होने के नाते शिकार करना मुश्किल होता था, इसलिए कई जानवरों के साथ इसका प्रजनन करवाया गया। अंत में देसी गाय के साथ प्रजनन के बाद जर्सी प्रजाति का विकास हुआ।
पर क्या वास्तव में उसका दूध भी उतना ही फायदेमंद है? अध्ययन बताते हैं- नहीं। यूरोप में इनके दूध को सीधे-सीधे पीने योग्य नहीं समझा जाता है। यानी ट्रीट करने के बाद ही बाजार में भेजा जाता है। इसके दूध में कैसोमोर्फीन नामक एक रसायन पाया जाता है, जो एक तरह का धीमा जहर है। जिससे उच्च रक्तचाप सहित मन की कई बीमारियां होने का खतरा रहता है। इसकी एक वजह यह भी है कि भारत में क्रॉस ब्रीडिंग यानी संकरन की प्रक्रिया भी अवैज्ञानिक और असंतुलित है। हमारे किसान और पशुपालक इसके नुकसानों के प्रति बिलकुल भी जागरूक नहीं हैं। उन्हें दूध की अधिक मात्रा के सब्जबाग ही दिखाए जाते हैं। इसलिए देश भर में बड़ी तेजी के साथ गाय की देसी नस्लें खत्म हो रही हैं। वर्ष 2012 में हुई पशुगणना के अनुसार उससे पहले के पांच वर्षों में देसी गाय की आबादी में 32 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है, जबकि विदेशी नस्ल की गाय की आबादी में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यही हाल रहा तो अगले दस वर्षों में भारतीय देसी गाय विलुप्त हो जाएगी।
पशु विज्ञानियों का कहना है कि यदि दूध का उत्पादन ही बढ़ाना है, तो ज्यादा दूध देने वाली भारतीय नस्ल की गायों से संकरन करवाया जाए। इनमें पंजाब की साहिवाल, गुजरात की गिर और राजस्थान की थारपारकर प्रमुख नस्लें हैं। लेकिन अपने पैरों पर कुठाराघात करने वाले भारतीय नीति-नियोजकों को केवल विदेशी में ही अच्छाइयां दिखाई पड़ती हैं। सुना है कि सरकार संकरन को मानक बनाने के लिए कानून बनाने की सोच रही है। उसे तत्काल इसे अंजाम देना चाहिए। समय आ गया है कि हम अपनी पिछली पीढी की गलतियों को सुधारें और अपनी देसी गाय को विलोपन से बचाएं। दूध को अमृत समझने वाले देश को इस तरह छाला न जाए।