भारत में यह पहला मौका है जब किसानों की सभी मांगो को सरकार द्वारा माना जा रहा हो और सरकार सारी शंकाओ का निवारण मौखिक व लिखित रूप से करने को तैयार है, सिवाय बिल रद्द के। जब किसान की सारी मांगें मानी जा रही हैं फिर किसानों को जिद करने की क्या आवश्यकता है, यह समझ से बाहर है। पंजाब में तो पहले से ही कांट्रेक्ट पर खेती हो रही थी। पंजाब सरकार अपने यहां इस बिल लागू भी नहीं कर रही है। तब किसानों को आंदोलन की क्या आवश्यकता है, यह समझ से परे है।
प्रजातांत्रिक देश में अपनी मांगों के समर्थन में धरना और प्रदर्शन उचित है और यह संविधान प्रदत्त अधिकार भी है। लेकिन जब कोई आंदोलन और इसके द्वारा होने वाले धरना-प्रदर्शन दूसरे नागरिकों के लिए परेशानी का कारण बन जाएं, जिससे उनके समुचित जीवन यापन में बाधा पड़े और उनके अपने नागरिक अधिकारों का हनन हो, बिल्कुल भी उचित नहीं कहे जा सकते हैं।
दुर्भाग्य से किसानों के इस प्रदर्शन की शुरुआत ही कुछ इस तरह से हुई है जिससे आर्थिक गतिविधियों के साथ साथ सामान्य जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है। पहले आंदोलन पंजाब में रेलवे ट्रैक के ऊपर किया गया। जिससे सभी सवारी गाड़ी और मालगाड़ियां प्रभावित हुईं। पंजाब के बिजली घरों को जाने जाने वाले कोयले की कमी हो गई और इस कारण पंजाब में बिजली का उत्पादन बूरी तरह से प्रभावित हुआ। पंजाब सरकार ने बहुत होशियारी से इस पूरे आंदोलन को दिल्ली में भेज दिया ताकि इस पूरे आंदोलन को मीडिया का ज्यादा आकर्षण मिल सके।
चूंकि उत्तर भारत के ज्यादातर टीवी स्टूडियो नोएडा, दिल्ली और गुड़गांव में स्थित हंै, इसलिए पूरे दिन इन किसानों के हर गतिविधि का आंखों देखा हाल प्रसारित किया जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि इन तथाकथित किसानों के हौसले भी बुलंदी छू रहे हैं। इन तथाकथित किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्ग बंद कर दिए हैं। दिल्ली आने जाने वाले रास्ते भी लगभग बंद हो गए हैं। ट्रांसपोर्टेशन बंद होने के कारण दिल्ली में आपूर्ति बुरी तरह से प्रभावित हो रही है और धीरे-धीरे औद्योगिक गतिविधियां भी प्रभावित होने लगी हैं।
इन किसानों को लगभग सभी मोदी विरोधी राजनीतिक दलों और अन्य संगठनों का समर्थन प्राप्त हो रहा है। जहां राजनीतिक संगठन अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं वहीं दूसरे गैर सरकारी और देश विरोधी संगठन इस आंदोलन की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। इन सब गतिविधियों से इन तथाकथित किसानों का आंदोलन भटक गया है और अब वह इस जिद पर अड़े हैं कि पहले तीनों कृषि बिल वापस लिए जाएं, तब वह बातचीत करेंगे? कोई उनसे पूछने वाला नहीं है कि धरना-प्रदर्शन और आंदोलन, इन तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध ही है और अगर इन्हें वापस ले लिया जाएगा तो फिर किसलिए बातचीत?
लेकिन इसका अर्थ यह निकलता है कि अगर सरकार तीनों कृषि कानून वापस भी ले लेगी तो भी आंदोलन खत्म नहीं होगा क्योंकि अब यह आंदोलन किसानों के हाथों से निकल कर अनियंत्रित हो गया है। इस आंदोलन की आड़ में खालिस्तान समर्थक अपने आंदोलन को दोबारा खड़ा करना चाहते हैं और उन्हें संशोधित नागरिकता कानून का विरोध करने वाले लोगों का भी समर्थन प्राप्त हो रहा है और वह इस आंदोलन को शाहीनबाग भाग-2 बनाने के लिए पूरा जोर-शोर लगा रहे हैं। माओवादियों का समर्थन करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी भी अपना पूरा जोर इस आंदोलन को तेज करने में लगा रहे हैं।सरकार द्वारा पारित 3 कानूनों में हो सकता है कि कुछ विसंगतियां हो, जिन्हें दूर करने के लिए सरकार तैयार है लेकिन आंदोलनकारी इस बात पर आमादा है कि पहले इन तीनों कानूनों को वापस ले लिया जाए, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता है।
मुझे लगता है इन कानूनों को वापस लिया जाना भारत के 95 फीसदी उन किसानों के साथ अन्याय होगा, जिनकी देश में कोई आवाज नहीं है और न ही वे किसी किसान संगठन या किसान यूनियन के सदस्य हैं। यह 95 फीसदी किसान ऐसे हैं जिन्हें न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा हो पा रहा है और न ही वह बड़े किसान हैं। इन किसानों के जीवन में बड़े बदलाव के लिए आशा की एक किरण इन तीन कृषि कानूनों से जगी है और जिसे यह बड़े किसान शुरुआत में ही बुझा देना चाहते हैं।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि हरित क्रांति के बाद पंजाब तथा हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े किसान सिर्फ गेहूं और धान की फसल उगाते हैं और वह भी पूरी तरह से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद पर आधारित है। इसलिए फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया खाद्यान्नों की सबसे अधिक खरीद पंजाब और हरियाणा से करता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों में सरकारी खरीद का कोटा काफी कम है। अगर खुले बाजार में आप कहीं भी गेहूं खरीदने जाए तो ज्यादातर गेहूं मध्य प्रदेश का मिलेगा। आप ढूंढना भी चाहे तो पंजाब और हरियाणा का गेहूं आपको नहीं मिल सकता।
इसलिए इस आंदोलन का गणित बहुत आसानी से समझा जा सकता है।
यह प्रदर्शन सुख सुविधाओं के लिहाज से शाहीन बाग से काफी बेहतर है।
यहां जीवन तो बहुत अच्छा है लेकिन किसकी कीमत पर ?
यहां दिनचर्या में कोई व्यवधान नहीं है।
कांग्रेस भी राजनैतिक उपवास कर रही है, जहां फाइव स्टार भोजन का प्रबंध किया गया है।
मुझे लगता है कि सरकार को इन तथाकथित किसानों की जोर जबरदस्ती वाले आंदोलन की आगे नहीं झुकना चाहिए और किसानों की इस आंदोलन से टुकड़े-टुकड़े गैंग, खालिस्तान, शाहीन बाग और माओवादियों के समर्थकों को तुरंत अलग करना चाहि। अन्यथा धीरे-धीरे इसके भयंकर परिणाम सामने आएंगे। आंदोलन को देश-विदेश से अत्यधिक चंदा मिल रहा है और इन आंदोलनकारियों की जीवन शैली सामान्य आंदोलनकारियों से सर्वथा भिन्न है इसलिए सरकार को इसके दबाव में आने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है।
सरकार को अपनी एजेंसियों को सतर्क कर देना चाहिए जो इस किसान आंदोलन की आड़ में हो रही संदिग्ध हरकतें पर नजर रख सकें। यदि ऐसा होता है तो देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने वाली ताकतों का पर्दाफाश होगा। किसान भी संयमित होकर अपनी बात को सरकार के सामने रखकर विसंगति हो दूर करा सकते हैं, जिसके लिए सरकार बिल्कुल तैयार हैं। लेकिन आंदोलन की आड़ में देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम पहुंचाता कतई उचित नहीं कहा जा सकता है।