जहां बिहार की जनता ने तय कर लिया कि उसे सुशासन चाहिए तो अमेरिकियों ने बदलाव का मन बनाया। अमेरिका और बिहार के चुनाव परिणामों के क्या हैं मायने -जावेद अख्तर

जालौन। यह सप्ताह काफी रोचक रहा। एक ओर जहां अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीद के मुताबिक सत्ता परिवर्तन देखने को मिला वहीं दूसरे ओर बिहार में जिसकी उम्मीद नहीं थी वह हुआ। जब सभी एक्जिट पोल और अन्य चर्चाओं में तेजस्वी को भारी बहुमत से जीत की चर्चा थी तो जब चुनाव परिणाम आए तो सभी के दावे फेल होते दिखे। बिहार में भाजपा ने अभूतपूर्व कामयाबी दर्ज की। इन दोनों जीत के क्या मायने हैं यही इस चर्चा का मुख्य विषय है। 

    पहले चर्चा अमेरिकी चुनावों को लेकर, अमेरिका में भारी कसमकस के बीच संपन्न हुए चुनावों में सबसे अधिक समय (लगभग साढ़े तीन दिनों तक) तक वोट गिने जाने का रिकार्ड बना। चुनाव के दौरान तरह-तरह की चर्चाएं होती रहीं हैं कि भारत के लिए ट्रम्प अथवा बाइडन कौन अधिक उपयोगी, उपयुक्त या हितैषी होगा ? ‘हाउडी मोदी’, ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ और ‘नमस्ते ट्रम्प’ का उन्हें कोई फायदा मिलेगा अथवा नहीं। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है (हो सकता है कि आपकी राय अलग हो) ट्रम्प अमेरिकन इतिहास के सबसे अधिक संदिग्ध चरित्र एवं सबसे कम औसत बुद्धि वाले राष्ट्रपति रहे ? जिन्होंने अमेरिका नुकसान ही अधिक कराया एवं वैश्विक स्तर पर अमेरिका की छवि धूमिल की। ट्रम्प, अपनी झूठ बोलने एवं कहीं भी कुछ बोलने की आदत के लिए मशहूर रहे हैं। महिला सम्मान तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। यही वजह है कि वह अपने पूरे कार्यकाल के दौरान चर्चित रहे। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति ने चार साल पूरी दुनिया को गुमराह किया। जिस भारत ने उनकी आवभगत की गाहे बगाहे वह भारत के खिलाफ बोलने से बाज नहीं आए। चाहे कोरोना काल में बुखार की दवा की आपूर्ति का मामला हो अथवा कोरोना के आंकड़ों को लेकर भारत की विश्वसनीयता पर प्रश्न करना हो, उन्होंने इन मामलों में स्वयं को ही दुनियां की नजरों से गिराया है। शायद यही वजह है कि भारत वंशियों ने उन्हें नकार दिया। 

जो बाइडेन व डोनाल्ड ट्रम्प

    30 अप्रैल 1789 को अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन के साथ दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका की जो विकास यात्रा आरंभ हुई है, आज पूरी दुनिया उसकी आगोश में है। अमेरिका के राष्ट्रपतियों की चर्चा की जाए तो अमेरिका के 231 वर्षों के इतिहास और इस पद के 58 चुनावों में मात्र 45 व्यक्ति ही इस महत्वपूर्णं राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए हैं, जो दुनिया का सबसे शक्तिशाली पद है। राष्ट्रपति ट्रम्प 58वें चुनाव में 45वें व्यक्ति थे। 59वें चुनाव में इस पद पर आसीन होने वाले जो बाइडन 46वें राष्ट्रपति हैं।  अमेरिका के इतिहास में 32वें राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट (डेमोक्रेट्स), जो 1932 से 1944 तक तीन लगातार चुनावों  में अमेरिका के राष्ट्रपति रहे, को छोड़कर अभी तक 19 लोग दो-दो बार अमेरिका के राष्ट्रपति रह चुके हैं। इसके पूर्व अब्राहम लिंकन (1860-1868) अमेरिका के इतिहास के पहले रिपब्ल्किन राष्ट्रपति हुए, और लगातार दो कार्यकाल इस पद पर रहे। तब से लेकर यूएसए में लगभग बारी-बारी से डेमोक्रेट्स एवं रिपब्ल्किन ही सत्ता पर काबिज रहे हैं।

    मात्र दो सौ वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) ने दुनिया के सामने एवं दुनिया के लिए विकास, प्रगति, उन्नति एवं संवृद्धि की ऐसी मिशाल पेश की है, कि आज पूरी दुनिया इसकी चकाचैंध में गुम है। अमेरिका, आज एक ऐसा नाम है जो पूरी दुनिया को अपनी महाशक्ति होने का प्रमाण दे चुका है। यूरोप, जो कभी पूरी दुनिया का नेतृत्त्व करता था, अब संयुक्त राज्य अमेरिका के समक्ष कहीं टिकता नजर नहीं आता है। इसी अमेरिका से टक्कर लेने के लिए आजकल चीन हाथपांव मार रहा है। लगभग पिछले एक दशक से चीन, अमेरिका को पछाड़कर दुनिया की नई महाशक्ति बनना चाहता है। यही अमेरिका की समकालीन प्रासंगिकता है, यही अमेरिका की पहचान है, यही अमेरिका की विकास, प्रगति, तरक्की, उन्नति एवं संवृद्धि का प्रमाण है।

    लेकिन इस बार के अमेरिकी चुनाव में बहुत सी ऐसी तथ्यात्मक बातों का खुलासा भी हुआ है जिसके लिए अमेरिका अभी तक दुनिया का सरताज बना हुआ है, कहलाता रहा है। मसलन जाति-धर्म, रंग-नस्ल, पंथ-संप्रदाय जैसी तमाम मानवीय कमतरियों से ऊपर उठ चुके समाज के रूप में अमेरिका की जो पहचान थी, वह इस बार के चुनाव परिणाम के बाद धूमिल होती नजर आ रही है। इस बार के चुनाव में अमेरिका में जिस तरह से वोटिंग हुई है उससे साफ है कि अब अमेरिका भी स्थानीय-बाहरी, श्वेत-अश्वेत, ग्रेजुएट-नॉन ग्रेजुएट जैसे मसलों से जूझता दिखने लगा है। आने वाले वक्त में निश्चित तौर पर इस तरह के मुद्दे और बढ़ेंगे जिससे अमेरिका की दुनिया के समक्ष बनी छवि का और धूमिल होना तय है।

    बहरहाल जिन डोनाल्ड ट्रंप ने बेतुके, निरर्थक मुद्दों से अमेरिका की पहचान को नुकसान पहुंचाया है। उस ट्रम्प युग की अमेरिका में समाप्ति हो चुकी है। अब बाइडन से उम्मीद की जानी चाहिए कि वह नए राष्ट्रपति के स्प में इस दिशा में सकारात्मक पहल करेगें और जाति-धर्म, रंग-नस्ल, अमेरिकन-बाहरी जैसे तमाम मानवीय कमतरियों से उपर उठकर केवल और केवल विकास एवं संवृद्धि के मसले पर काम करेगें, जो उसकी पहचान रही है।

-अब बात एक और चुनाव की जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी थी-

कोेरोना महामारी के दौर में हुए बिहार विधानसभा का चुनाव पर पूरे देश की निगाह टिकी थी। यह चुनाव कोरोना महामारी की काली छाया में संपन्न हुआ है। विपक्ष ने चुनाव टालने की मांग चुनाव आयोग से की थी। लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) चुनाव के पक्ष में थी। 

    प्रचार के डिजिटल तरीकों, सरकारी साधनों और आर्थिक संसाधनों से लैस भाजपा के रणनीतिकार चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत मान कर चल रहे थे। भाजपा ने जिस प्रकार चुनावी बिसात बिछाई उससे लग रहा था कि वह बिहार में दीर्घकालिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए चुनाव लड़ रही है। स्वर्गीय रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान को उनकी राजैनितिक औकात दिखाना, तेजस्वी यादव और राहुल गांधी को जंगलराज के युवराज की तरह प्रचारित करना। खुद प्रधानमंत्री का अयोध्या में राममंदिर, कश्मीर में धारा 370, नागरिकता कानून का हवाला देना। महागठबंधन के नेताओं को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का समर्थक और भारतमाता का द्रोही बताना आदि मुद्दों के रूप में भाजपा के तरकश के ऐसे तीर थे, जिन्हें चलाने पर विपक्ष का धराशायी होना तय माना गया था। भाजपा ने इसी रणनीति पर पूरा लड़ा और उसे उम्मीद थी कि इस बार न सही लेकिन अगली बार वह किसी से गठजोड़ के साथ नहीं बल्कि स्वयं की शक्ति से बिहार में सरकार बना लेगी। 

नरेंद्र मोदी, नितीश कुमार, चिराग पासपास, तेजस्वी यादव व राहुल गांधी

    चुनाव के बाद आए लगभग सभी एग्जिट पोलों में तेजस्वी को भारी बहुमत से बिहार का मुख्यमंत्री होने की चर्चा दिन रात टीवी पर डिबेट के रूप में चली। लेकिन मंगलवार को जब परिणाम खुले तो एनडीए का एक बार फिर सत्ता में आना तय हो गया। बिहार की जनता को लुभाने के लिए तेजस्वी का 10 लाख नौकरियां देने का वादा काम न आया। चुनाव परिणाम के बाद सभी एग्जिट पोल की भी पोल खुल गई। मुझे तो लगाता है कि एग्जिट पोल और कुछ नहीं चुनाव के बाद खाली समय का उपयोग करने मात्र का तरीका है। टीवी चैनल इसी बहाने अपने कार्यक्रम चलाते रहते हैं। अधिकांश चुनावों में एक्जिट पोल के आंकड़े हकीकत से विपरीत नजर आते हैं। 

    लोगों को लग रहा था कि 15 साल के शासन के बाद बिहार की जनता नितीश से ऊब गई होगी। कोरोना काल में बिहार के लोगों के लिए मुख्यमंत्री द्वारा दरवाजे बंद कर देने से जनता उनके खिलाफ वोट करेगी। बढ़ती मंहगाई, बेरोजगारी आदि के मुद्दों पर वोट होगा। जनता तेजस्वी जैसे युवा के लिए वोट करेगी। हालांकि उनकी पार्टी को मिले वोट से ऐसा कहना गलत भी नहीं है। 

      लेकिन मोदी के व्यक्तित्व ने पूरी बिसात ही पलट दी। कहना न होगा कि एनडीए की जीत और किसी की नहीं बल्कि सीधे मोदी की ही जीत है। बिहार की जनता को शायद लगा है कि तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव की तरह ही कहीं तेजस्वी फिर से बिहार को जंगलराज में न बदल दें। हालांकि तेजस्वी पर राज्य के लोगों ने भरोसा भी दिखाया है लेकिन उतना नहीं कि वह अपने दम पर सरकार बना ले जाएं। 

     जबकि ऊपर उल्लिखित सभी बातों के बावजूद बिहार की जनता ने मोदी पर भरोसा जताते हुए गेंद उनके पाले में डाल ही दी। कहना गलत नहीं होगा कि मोदी का कद और व्यक्तित्व इतना बड़ा हो चुका है कि कोई अन्य उनके आसपास भी नहीं ठहरता। यह उनके कुशल प्रबंधन, वाक्य चातुर्य और दूरगामी सोच का ही परिणाम है कि वह जो सोच लेते है वह कर डालते हैं। राजनीति के रंगमंच पर यदि नरेंद्र मोदी को राम हैं तो उनके लिए गृहमंत्री अमित शाह सहयोगी हनुमान से कम नहीं हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उनके लिए भाई लक्ष्मण के पर्याय हैं। 

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